बलिया। डॉ० रामसेवक "विकल" का जन्म 1 जुलाई 1939 ई० को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के इसारी सलेमपुर गांव में एक सभ्य परिवार में हुआ था। उनके पिता श्री भगवान जी सामान्य पढे़-लिखे थे, अपने जीवन में तुलसीदास को आदर्श मानकर चलने वाले पिता को रामायण, महाभारत, गीता के उपदेश बखूबी याद थे। गांव के लोग उनकी ईमानदारी, कर्मठता और सच्चरित्रता पर मुग्ध रहते हैं । प्रातः काल दैनिक क्रिया से निवृत होकर पुजा पाठ करने के पश्चात ही अन्न जल ग्रहण करते थे। उनके तीन पुत्र लक्ष्मी, राम किंकर, और राम सेवक विकल हुए। तीनों पुत्रों के शिक्षा दीक्षा की पूरी व्यवस्था से श्री भगवान जी की आर्थिक स्थिति सोचनीय हो गयी तथापि वे साहस न खोये। ज्येष्ठ पुत्र को प्राइमरी स्कूल में शिक्षक पद मिल गया। काल गति के कारण लक्ष्मी जी का देहान्त 1957 ई० को हो गया। परिवार पर बहुत बड़ी विपत्ति आयी लेकिन दैवीय विधान को कोई टाल नहीं सकता है। उस समय राम किंकर जी पढ़कर घर बैठे हुए थे। वे जमशेदपुर चले गए और वहीं नौकरी का प्रयास करने लगे । श्री भगवान जी के कनिष्ठ पुत्र रामसेवक "विकल" उस समय स्नातक कर रहे थे और साहित्य सृजन में भी लगे हुए थे। कविता में अभिरुचि के चलते अपना उपनाम 'विकल’ रखा।
डॉ० राम सेवक "विकल" की प्राथमिक शिक्षा गांव के विद्यालय में ही हुई और श्री नाथ हाई स्कूल से मैट्रिक पास किया और रतसर इन्टर कालेज से आई०ए ० तथा सतीश चन्द्र कॉलेज बलिया से बी०ए० की उपाधि प्राप्त किया। 1958 में बी० ए० पास करने के पश्चात 1958-59 सत्र में विधि के छात्र बने किन्तु परिवार की आर्थिक स्थिति खराब हो जाने के कारण जमशेदपुर चले गए । वहां पहले से ही इनके अग्रज राम किंकर जी रहते थे। इनके साथ रहकर कुछ समय बिताने के पश्चात हल्दी पोखर के विख्यात विद्यालय गिरि भारती में शिक्षक के पद पर इनकी नियुक्ति हो गयी। शिक्षण अवधि में ही व्यक्तिगत रूप से अध्ययन करते हुए इन्होंने रांची विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम० ए० की उपाधि प्राप्त की और रांची विश्वविद्यालय के तत्कालीन हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ० जयनारायण मंडल के निर्देशन में "जयशंकर प्रसाद और द्विजेन्द्र लाल राय के नाटकों का तुलनात्मक अध्ययन" विषय पर रांची विश्वविद्यालय से पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। स्पष्टतः द्विजेन्द्र लाल राय के मूल नाटकों के बंगला में अध्ययन करने का प्रयास बतलाता है कि डॉ० विकल ने बंगला भाषा का अच्छा अध्ययन करने के बाद ही यह कार्य सम्पन्न किया। विकल जी हिन्दी, संस्कृत, बंगला और अंग्रेजी के अच्छे अध्येता और हिन्दी भोजपुरी के विख्यात कवि एवं साहित्यकार रहे। वैसे बंगला में भी उनकी कुछ कविताएं हैं। उड़िया भाषी लोगों के सम्पर्क में रहकर उड़िया भी समझ लेते थे । चूंकि हल्दी पोखर ऐसी जगह पर अवस्थित है जहाँ के लोग कुछ हिन्दी भाषी , कुछ आदिवासी भाषी , और कुछ उड़िया भाषी रहे, लेकिन अधिकांश लोग बंगला भाषी थे। बंगला भाषी क्षेत्र में रहने के कारण विकल जी बंगला के माधुर्य और लालित्य से वंचित नहीं रह सके । उन्हें वहां बंगला भाषा सीखने और समझने की मधुर और आकर्षण भाव भूमि मिली।
गिरिभारती विद्यालय में कार्य करते हुए डॉ० विकल ने छोटा नागपुर का कालेज हल्दीपोखर नामक सांध्यकालीन महाविद्यालय की स्थापना की । महाविद्यालय के कार्य और शोध कार्य को पूरा किया और छोटानागपुर कॉलेज का निर्माण भी किया जो हल्दी पोखर क्षेत्र के निवासियों के लिए एक महत्वपूर्ण देन है।
व्यक्तित्व
विकलजी के व्यक्तित्व कला रश्मियों में नहाती उपस्थिति दमदमातावर्ण, उन्नतनासिका, चिन्तनशील , मानवीय मूल्यों के संस्थान हेतु सतत संघर्षरत वाताक्रम में प्राचीन आचार्य परम्परा की आभा से अपना जगमगाते गीत गन्ध बिखेरती वाणी, अपनी असीम सम्भावनाएं में पर्यवसित, चेतना की चमत्कृति से उद्भासित विकल जी इस आंचल के सर्वाधिक , प्रकाश पूर्ण हस्ताक्षर रहे।
डॉ० विकल सहृदय, मिलनसार, सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक कार्य में अभिरुचि रखने वाले व्यक्ति थे। अहिन्दी भाषी क्षेत्र में रहते हुए भी वे इस प्रकार लोगों से घुल-मिल गये थे कि हल्दीपोखर में हिन्दी भाषी , बंगाली, उड़ीया, राजस्थानी, आदिवासी, और मुसलमान सभी लोग इन्हें मानते थे। उनके पास मिलने के लिए जाने वाले व्यक्ति माने जाते थे और वह उनका अपना हो जाता था। उनका व्यवहार ऐसा था कि चाहे कोई धनी हो चाहे गरीब, चाहे अधिकारी हो चाहे साधारण कर्मचारी, वे सबके साथ उदारतापूर्वक सद-व्यवहार करते थे। उनकी शालीनता और औदात्य के कारण हल्दी पोखर में उच्च कोटि के व्यक्तियों का स्वागत होता रहता था। लोग कभी गिरि भारती उच्च विद्यालय में तो कभी छोटानागपुर कालेज में जाते थे और वहां के छात्रों शिक्षकों और सामान्यजनों से मिलकर के आते थे । किसी समय शिक्षा मंत्री सत्येन्द्र नारायण सिंह , डॉ० लक्ष्मी "सुधांशु आचार्य विनोबा भावे" इत्यादि मनीषियों का पदार्पण हल्दीपोखर में हुआ और इनसे विकल जी को आशीर्वाद प्राप्त हुआ। जगतगुरु शंकराचार्य ज्योतिष्पीठाधीश्वर स्वामी कृष्ण बोधाश्रम जी हल्दी पोखर पधारे थे तो स्वागत सत्कार के पश्चात डॉ० विकल ने उनके सम्मान में अपनी भोजपुरी गीता के कुछ अंश सुनाये थे और उन्होंने आशीर्वाद स्वरूप उसकी भूमिका लिख दी। भौतिकवादी सुख-सुविधाओं के युग में विकल जी भौतिक भोग विलास से दूर रहकर सादा जीवन उच्च विचार रखने वाले व्यक्ति थे। साधारण वेश भूषा में पाकर कोई अपरिचित आदमी सहज ही यह नहीं कह सकता था कि यह धोती कुर्ता पहनने वाला व्यक्ति इतना विद्वान और लोकप्रिय हो सकता है। लेकिन जब वह इनसे मिलता था, परिचय पाता था, साहित्यिक और सामाजिक विषयों पर चर्चा करता था तो समझ जाता था कि इस साधारण से दिखने वाले व्यक्ति में असाधारण प्रतिभा छिपी हुई है। विकल जी बात-बात में सम्माननीय व्यवहार, हास्य के पुट और सहज ढंग से गम्भीर विषयों पर विचार करते थे, जिससे स्वाभाविक रूप से उनकी प्रतिभा प्रकट हो जाती थी। जमशेदपुर से प्रकाशित "लौह कुंज" साप्ताहिक पत्रिका में डा० बच्चन पाठक सलिल ने लिखा था, "विकल जी एक ऐसे कवि हैं, जो ढाई दशकों से सिंहभूमि की वनस्थली में, हल्दीपोखर गांव के एकान्त में रहकर मां भारती की मूक भाव से अर्चना करते आ रहे हैं। हृदय से कवि, भावना से कलाकर, पेशे से शिक्षक, स्वभाव के मधुर विकल जी एक सहज मित्र हैं। मेरे लिए तो मेरे हमदम मेरे दोस्त बन गये हैं। भगवान करे यह मित्रता आजीवन चलती रहे, ताकि मैं एक सहज बन्धु की मैत्री का गर्व अनुभव करता रहूंगा।"
डा० विकल की प्रथम प्रकाशित कृति “कर्मवीर“ नाटक थी, जो स्वर्गीय गंगा प्रसाद कौशल के प्रेस से 1962 ई० में छपी थी। संस्कृत की विख्यात कथा "वीरवरोपाख्याय नमः" के कथन के आधार पर "कर्मवीर" की रचना हुई। आज के आक्रोश वादी युग में जहां युवको में अनास्था की भावना आ रही है और वे अपने कर्तव्य के प्रति विमुख हो रहे हैं, वहीं कर्मवीर वीरवर का त्याग और राजा शुद्रक के प्रति निष्ठाभावना आदर्श रूप में चित्रित है। इस नाटक का मंचन कई बार कई जगहों पर सफल रूप से हुआ । इनकी दूसरी कृति "डूबे हुए भाई-बहन" नाटक बंगला के विख्यात नाटककार स्वर्गीय तड़ित वसु के नाटक का रूपान्तर थी। मूल नाटक बंगला में है जिसका रूपान्तर विकल जी ने किया। प्रकाशन से पहले श्री वसु के निर्देशन में इस नाटक का मंचन गिरि भारती के सुन्दरम रंगमंच पर कई बार हो चुका था। इसका प्रकाशन सन 1969 ई० में हुआ था। इस नाटक से पूर्व विकलजी ने अपने छात्र-छात्राओं की कुछ कविताओं का सम्पादन “फूल और कलियां“ नाम से किया था। विकलजी ने श्री कृष्णा कुमार विद्यार्थी, डॉ० बच्चन पाठक सलिल और कुछ अपनी कविताओं का संकलन “आशा किरण“ नाम से सम्पादित किया था। आशा किरण प्रकाशन भी 1969 ई० में हुआ था। छात्रोपयोगी पुस्तकों के क्षेत्र में भी विकलजी पीछे नहीं रहें। छात्रों की आवश्यकता को देखते हुए बंगला में संस्कृत अनुवाद की पुस्तक “संस्कृत अनुवादिका“ लिखी और उनका प्रकाशन कराया। उसके कई संस्करण मुद्रित हुए हैं। प्रेमचन्द की कहानियों के दो संग्रह "पांच फूल" और "सप्त सरोज" छात्रों के पाठ्यक्रम में थे जिनकी छात्रोपयोगी समीक्षा लिखकर विकल जी ने छपवाया। उनका भी कई संस्करण प्रकाशित हो चुका है।
बंकिम चन्द्र के प्रसिद्ध ग्रन्थ, “कमलाकान्त" के कोर्टसीन के कथानक का उन्होंने नाट्य रूपान्तार किया जिसका मंचन गिरि भारती के सुन्दरम मंच पर कई बार हुआ । इस रुपान्तर का प्रकाशन "छीनकर खाओ" नाम से प्रथम बार हुआ था, किन्तु बाद में विकलजी को यह नाम जंचा नहीं इसलिए दूसरे संस्करण में इसका नाम "कमलाकान्त" देकर प्रकाशित कराया। रहस्य रोमांचपूर्ण घटना के आधार पर विकल जी की तीसरी नाट्य कृति "जादूगर" है जो कौशल जी द्वारा सम्पादित “आजाद मजदूर“ में धारावाधिक प्रकाशित हुई। इस नाट्यकृति में चाचा के हत्यारे की खोज करने के लिए गुप्तचर विभाग का अधिकारी भतीजे के यहां नौकरी का काम करते हुए गुप्त रहस्यों की जानकारी हासिल करता है। अन्त में हत्यारे को पकड़ लिया जाता है। इस नाटक का मंचन जमशेदपुर की विख्यात संस्था “लयोला स्कूल" के रंगमंच पर हुआ था । जमशेदपुर के साहित्यकारों और नाट्य प्रेमियों ने इस नाटक की कथा–योजना, चरित्र गठन और उद्देश्यपूर्ति की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी।
विकल जी के अप्रकाशित नाटकों में "माँ की आंखें" , "कवि", "बाप का आदर्श बेटा", "स्वर्ग में कवि सभा" , "विधायक की बिक्री" , "स्वर्ग में मंत्री सभा", "शोषण बन्द करो" . "हमारी बहनें" , "परिवर्तन" आदि हैं तथा कविताओं, कहानियों और निबन्धों के अनेक संग्रह प्रकाशनार्थ पड़े हुए हैं।
विभिन्न स्मारिकाओं और संग्रहों में विकल जी की रचनाओं को आदर के साथ प्रकाशित किया गया है। "सर्वोदय-सुमन","ज्योति पुरुष", "बढ़ते चरण", "इन्दिरायन" , "लोकप्रिय कवि", "त्रिवेणी धारा", "बिखरे फूल", "वन वैभव" , "पूर्वांचला" आदि संकलनों में विकल जी की चुनी हुई रचनाएं प्रकाशित हुईं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में विकल जी के निबन्ध और कविताएं प्रकाशित होती रहीं । जिनमें प्रमुख हैं:- "नालंदा दर्पण", "दैनिक सन्मार्ग" "संसार", "आज" , "आजाद मजदूर", "लौह कुंज", "बलिया समाचार", "बलि सत्ता", "तुलसी दास", "उदितवाणी", "दूधाधारी वचनामृत", "प्राच्य प्रभा", "जमशेदपुर पोस्ट" , "आदित्यपुर टाइम्स", "दैनिक विश्वमित्र", "आदिवासी" , "धर्मयुग" , "सरस्वती संवाद", "मानवी साखी", "नयी राह" आदि ।
विभिन्न पत्रिकाओं में जिनका कविताओं का प्रकाशन हुआ है। उनमें कुछ कविताएं बहुत चर्चित रही हैं। वे हैं:- "कलम नहीं तलवार चाहिए", "लिख दे कवि इतिहास देश का", "कवि के प्रति मेरा प्रेम", "गोदान", "विनोबा के प्रति" , "नेहरू को कामना कली", "तुलसी के प्रति" , "आर्मस्ट्रांग की चन्द्र विजय", "श्रमिक के प्रति" , "राष्ट्र गीत" , "एक बने अनेक बने" , "राजनीति" इत्यादि हैं।
विकल जी की कविताओं में प्रकृति प्रेम , राष्ट्र भक्ति और सौन्दर्य बोध की झलक मिलती है।
कविता और नाटक के अतिरिक्त विकलजी ने समसामयिक विषयों पर भी निबंध लिखे हैं जो बड़े महत्वपूर्ण हैं। उनके प्रकाशित निबंधों में मुख्य हैं :- "अबकी देखेंगे" , "खटमल के नाम" "प्रतियोगिता पत्र", "राष्ट्रभाषा", "राष्ट्रीयता का मूल" , "भारत की अर्थव्यवस्था गोवंश पर आधारित" , गद्य के क्षेत्र में विकलजी ने मुख्यतः आलोचनात्मक निबन्धों की रचना की। इनके साहित्यिक निबन्ध "सरस्वती संवाद", "आजाद मजदूर" , "पूर्वांचला" , "हम सफर", "लौह मजदूर", "बलिया समाचार", "आज" आदि पत्रों में प्रकाशित होते रहे । इन निबन्धों में मुख्य हैं :- "साहित्य में अराजकता" , "साहित्वाद" , "चीनी आक्रमण और हिन्दी कविता" , "आधुनिक हिन्दी कवयित्रियां और उनके प्रेम एवं विरह गीत" , "युग और कवि" "स्वप्नवासवदत्तम में प्रकृति", "रसराज श्रृंगार", "विश्व नाट्य की भूमिका", "तुलसी की भक्ति का स्वरूप", "राम के पाषाण की अहिल्या", "प्रेमचन्द्र और व्यवहारिक जीवन", "रवीन्द्र ठाकुर के प्रसिद्ध नाटक", "प्रसाद के ऐतिहासिक नाटकों का वर्गीकरण और प्रसाद के नाटकों में सांस्कृतिक भावना", "संस्कृत नाट्य परम्परा", "भारतेन्दु कालीन नाटक", "स्वातंत्र्योत्तर भोजपुरी गद्य", "आधुनिक भोजपुरी कविता" आदि। कहानी के क्षेत्र में भी विकल जी का योगदान प्रशंसनीय हैं। इनकी "गुलदस्ता" कहानी अमीरों पर गरीबों की विजय का चित्र प्रस्तुत करती हैं। "रेखा और बिंदु" प्रतीकात्मक कहानी है। "अंगूठी" समस्या प्रधान कहानी है. "कलमा की शादी हो गयी" में शरणार्थियों की दुःखद स्थिति का वर्णन हुआ है। इनके अलावा "परोपकार", "द्रोणाचार्य हार गये", "पुरस्कार", "मीना और मुकुल" , "रोजगार दफ्तर में नारदजी" , "हरिनाम का प्रभाव", "भूतों का प्रेम विवाह" , "वेश्या की सीख" और "रंकीनी मां की जैसी मर्जी" आदि कहानियां विकल जी की कहानी कला के ज्वलंत उदाहरण हैं। आकाशवाणी रांची से कभी कभी विकलजी के आलेख प्रसारित किये गये, जिनमें "अध्यात्मिक सुख" और "नारी का श्रृंगार" मुख्य हैं।
राष्ट्रभाषा हिन्दी की सेवा के साथ–साथ विकल जी ने भोजपुरी की सेवा भी तन्मयता के साथ की। हल्दीपोखर में आने के बाद विकल जी जमशेदपुर भोजपुरी साहित्य परिषद के सक्रिय सदस्य बने और जमकर भोजपुरी साहित्य की सेवा की । इनकी "भोजपुरी गीता" को परिषद ने सम्मान के साथ प्रकाशित किया। इस पद्यानुवाद के लिए उन्हें "राजनाथ राय शील्ड और पदक" से सम्मानित किया गया । भोजपुरी में गद्य-पद्य के साथ-साथ इन्होंने कहानियों का प्रणयन भी किया। इनकी भोजपुरी कवितायें "आजाद मजदूर" , "आदिवासी","साखी", "शबरी", "लुकार", "उत्तर बिहार" , "बलिया समाचार", "जनता ललकार" और "भोजपुरी माटी" , आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं। विकल जी की प्रथम भोजपुरी कविता "बीतल बसन्त झगरा लगाई" वाराणसी के "आज दैनिक“ में सन् 1961 ई० में प्रकाशित हुई थी। "आजाद मजदूर" में प्रकाशित इनकी कविता "मन पाखी" और "निर्गुन" की किसी समय जमशेदपुर में बड़ी धूम थी । इनकी लोकप्रिय कविताओं में "नेपाल और लद्दाख में सैंया", "गीत से सजाइब" , "मोती के लाल" , "कुँवर सिंह के प्रति" , "लइकन के विवाह", "देश के तुही देश तोहरे ह" , "बिरहा" आदि बड़ी मार्मिक रचनाएं है। विकल जी के गीतों में प्रेम और विरह के वर्णन मिलते है तथा कविताओं में प्रकृति प्रेम और राष्ट्रप्रेम की छवि साकार होती है । इन्होने रवीन्द्रनाथ टैगोर की "गीतान्जलि" की कविताओं को भोजपुरी कविताओं में पद्यानुवाद किया तथा प्रहलाद, ध्रुव, भरत जैसे युवा चरित्रों पर भोजपुरी में कई कविताएं लिखी है। विकल जी की भोजपुरी कविताओं के कई संग्रह प्रकाशनार्थ पड़े हुए है।
गद्य के क्षेत्र में भी विकल जी का समान अधिकार है। उनका प्रसिद्ध यात्रा विवरण "ई हs भृगुक्षेत्र", तथा आलोचनात्मक निबंध "आधुनिक भोजपुरी कविता में प्रकृति", "भोजपुरी साहित्य परिषद" से प्रकाशित संग्रह “फोकट में सैर“ और "लहालोट" में क्रमशः प्रकाशित हुए थे। "जगदीश ओझा सुन्दर की कविताओं में प्रकृति चित्रण" विषयाधारित निबंध "पूर्वांचला" में प्रकाशित हुआ है, "भोजपुरी में तत्सम शब्दों के प्रयोग", जनता ललकार तथा "कवि गुस्ताखी के हास्य", “भोजपुरी माटी“ में प्रकाशित हुए है। इनकी अधिकांश भोजपुरी कहानियां "भोजपुरी माटी", "बलिया समाचार" और "साखी" में प्रकाशित हुईं। इन कहानियों में मुख्य है :– "मंत्री के त्याग" , "हेराइल प्यार" , "जइसन करनी ओईसन भरनी", "छोड़ा के छोड़ब" "मन के भूत", "हेराइल प्यार“, “साधु से घर बार"।
विकल जी ने साहित्य के क्षेत्र में बहुत ख्याति अर्जित की। डॉ० विकल जी ने "जमशेदपुर भोजपुरी साहित्य परिषद" के सदस्य, जादूगोड़ा भोजपुरी साहित्य परिषद के "अध्यक्ष", दक्षिण बिहार भोजपुरी समाज के "सचिव", अखिल भारतीय भोजपुरी भाषा सम्मेलन को सिंहभूमि शाखा के "उपाध्यक्ष" आदि पदों पर रहकर मातृभाषा भोजपुरी की सेवा की। डॉ० रामसेवक विकल एक ऐसे कवि रहे जो तीन दशकों से सिंहभूमि की वन स्थली में हल्दी पोखर गांव के एकान्त में रहकर मां भारती की मूकभाव से अर्चना साधना किए । हृदय से कवि, भावना से कलाकार, पेशे से शिक्षक, स्वभाव से मधुर विकल जी एक सफल साहित्यकार थे। विकल जी को हिन्दी और भोजपुरी की अनेक कविताओं के अनुवाद बंगला में हुए हैं और इन्होंने बंगला की कविताओं के अनुवाद हिन्दी और भोजपुरी में किया। डाॅ० विकल जी की महत्वपूर्ण कृति "श्रीमद्भागवत गीता के भोजपुरी पद्यानुवाद" के लिए उन्हें कई संस्थाओं ने सम्मानित किया तथा बंगला से हिन्दी में अनुवाद कार्य के लिये "अखिल भारतबंग साहित्य सम्मेलन" ने 1980 में "मथुरा नाथ पुरस्कार" से सम्मानित किया।
सन् 1999 में गिरि भारती से प्राचार्य पद से सरकारी सेवा से सेवानिवृत्त होकर कुछ दिन तक जमशेदपुर के बागबेड़ा कॉलोनी में ही रहे। वहीं रहकर वे साहित्य सेवा करते रहे और बाद में अपने गांव इसारी सलेमपुर में आकर रहने लगे और साहित्य सेवा करने लगे। इसी बीच जगन्नाथ पुराण (चार भाग) पर तेजी से काम कर रहे थे और उसका गद्य रूप देकर पदानुवाद कर रहे थे। जगन्नाथ पुराण पर कुछ काम पूरा भी हो गया था। इसी के साथ-साथ "पुराण पुरुष" पर भी काम कर रहे थे, जिसमें महाभारत काल तक का काम पूरा हो चुका था। परंतु काल की गति कोई नहीं जानता। किसी को नहीं पता था कि जगन्नाथ पुराण और पुराण पुरुष का काम बीच में ही छोड़कर विकल जी इस दुनिया से अचानक चले जायेंगे। कई वर्षों से मधुमेह से पीड़ित घोर धार्मिक प्रवृत्ति के विकल जी 11 नवम्बर सन् 2002 को छठ पूजा के दिन ही छठ मैया का प्रसाद खाने के 2 घंटे बाद ही इस दुनिया को अलविदा कह गए। साहित्य सेवा में तन मन धन से लगे हुए सरस्वती के भक्त जीवन को खूब जीवटता के साथ जीने वाले डॉ. रामसेवक "विकल" कुसमय में भी हिम्मत नहीं हारने वाले सिपाही के समान कलम लेकर हरदम लड़ने वाला दूसरे लोक का वासी हो गया। आज भी डॉ. विकल के गृह ग्राम में दो साहित्यिक सामाजिक संस्थाएं इनके आदर्शों पर संचालित की जा रही हैं, डॉ. रामसेवक विकल साहित्य कला संगम संस्थान एवं पुस्तकालय, तथा डॉ. रामसेवक विकल साहित्य सेवा ट्रस्ट न्यास।
डॉ० विकल जी की पुण्यतिथि के अवसर पर उनके गृहग्राम में प्रायः कविसम्मेलन, साहित्यिक गोष्ठियां एवं अन्य सामाजिक कार्यक्रमों का आयोजन होता रहता है। देश के विभिन्न साहित्यकारों को संस्था द्वारा डॉ० विकल जी की स्मृति में "विकल सम्मान" तथा "डॉ० रामसेवक विकल राष्ट्रीय कृति सम्मान" से समय समय पर सम्मानित किया जाता है। इन दोनों संस्थाओं के प्रबंधक विकल जी के ज्येष्ठ पुत्र डॉ. आदित्य कुमार "अंशु" हैं। विकल जी के ज्येष्ठ पुत्र डॉ० आदित्य कुमार अंशु "मन-पाखी" भोजपुरी पुस्तक अपने पिता की स्मृति में 2004 में प्रकाशित कराये। उसके बहुत दिन बाद विकल जी के सभी पुत्रों के सहयोग से "भोजपुरी गीता" का दूसरा संस्करण सन् 2023 में डॉ० आदित्य कुमार अंशु के नेतृत्व में प्रकाशित हुआ। विकल जी के पौत्र आनन्द कुमार के सम्पादन में उनकी भोजपुरी लोकगीतों का संग्रह "आखर" पुस्तक "साहित्य समीक्षा संस्था" के सौजन्य से सन् 2025 में प्रकाशित हुई है।
डॉ० विकल जी के मरणोपरांत आज भी उनके ज्येष्ठ पुत्र डॉ० आदित्य कुमार 'अंशु' द्वारा विकल जी की विभिन्न रचनाएं देश की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं जैसे भोजपुरी माटी, विश्व कल्याण धारा, समकालीन अभिव्यक्ति, भोजपुरिया माटी, विश्वकर्मा सेवा संस्थान, साहित्य परिक्रमा तथा विभिन्न पुस्तकों जैसे भोजपुरी के श्रृंगार गीत, मधुरिमा, दोधारी तलवार, अंजुरी भर फूल आदि में प्रकाशित की जाती रहती हैं। डॉ० विकल का साहित्य अत्यंत विस्तृत है। साहित्य सेवा में डॉ. विकल जी का अप्रतिम अवदान सभी साहित्य प्रेमियों के लिए सदा स्मरणीय रहेगा।