ईद-अल-अजहा: परंपरा और आधुनिकता के बीच एक युवा के कुछ प्रासंगिक सवाल

बलिया । आज ईद-अल-अजहा का पर्व  पूरे देश में बड़े ही उत्साह और उमंग से मनाया जा रहा है, इसे हम  कुर्बानी का त्योहार भी कहते हैं। बलिया की कदीमी ईदगाहों में इस बार नमाज़ सकुशल संपन्न हुई, लेकिन इस पर्व ने कुछ गहरे सवाल भी छोड़े हैं, जो परंपरा, आधुनिकता और सामाजिक सरोकारों के बीच संतुलन की मांग करते हैं। 
इस अवसर पर भारत मीडिया ने आज एक ऐसे युवा से मुलाकात की जिसके कुर्बानी को लेकर तार्किक और व्यावहारिक विचार ने न सिर्फ हमें सोचने पर मजबूर किया है बल्कि प्रासंगिक भी हैं। बलिया के पशुहारी गांव निवासी युवा जुनैद अहमद ने जो सवाल उठाए हैं, वे हमें सोचने पर मजबूर करते हैं। 
आइए ! इन सवालों को गहराई से समझते हैं। ईद-उल-अजहा पर होने वाली कुर्बानी के मुद्दे पर जुनैद का ही पहला सवाल, "जानवर क्यों ज़िबाह होते हैं ? और क्या कागज़ी या मिट्टी के बकरे की प्रतीकात्मक कुर्बानी पर विचार नहीं होना चाहिए ?" यह सवाल कुर्बानी की परंपरा के मूल उद्देश्य पर केंद्रित है। इस्लामिक मान्यता के अनुसार, कुर्बानी पैगंबर इब्राहिम की अल्लाह के प्रति भक्ति और समर्पण का प्रतीक है, जब उन्होंने अपने बेटे की जगह एक मेमने की बलि दी थी। इस परंपरा में मांस को तीन हिस्सों में बांटा जाता है, पहला हिस्सा गरीबों के लिए, दूसरा रिश्तेदारों और दोस्तों के लिए और तीसरा परिवार के लिए।
लेकिन आज, जब पशु कल्याण और पर्यावरणीय स्थिरता को लेकर वैश्विक जागरूकता बढ़ रही है, क्या हमें प्रतीकात्मक कुर्बानी, जैसे कागज़ी या मिट्टी के बकरे, पर विचार करना चाहिए? कुछ लोग, जैसे तालिबान और अफगान सैनिकों ने, मिट्टी के बकरे की प्रतीकात्मक कुर्बानी का उदाहरण दिया है। यह न केवल पशु क्रूरता को कम कर सकता है, बल्कि धार्मिक भावनाओं को भी बनाए रख सकता है। प्रश्न यह है कि क्या ऐसी प्रतीकात्मकता वास्तविक कुर्बानी की जगह ले सकती है? क्या यह आधुनिक नैतिकता और धार्मिक मूल्यों के बीच संतुलन स्थापित कर सकती है?
होली, दिवाली, बकरीद जैसे सभी त्योहार रस्मी होने चाहिए
इसी क्रम में जुनैद का अगला सुझाव है कि "होली, दिवाली, बकरीद जैसे सभी त्योहार रस्मी होने चाहिए।" यह विचार त्योहारों के मूल मकसद को फिर से परिभाषित करने की मांग करता है। बकरीद का संदेश दान, भाईचारा और समर्पण है, तो क्या हमें इन त्योहारों को अनावश्यक खर्च और दिखावे से मुक्त कर, उनके आध्यात्मिक और सामाजिक महत्व पर ध्यान देना चाहिए? उदाहरण के लिए, होली में रंगों का अपव्यय या दिवाली में पटाखों का प्रदूषण भी पर्यावरण और समाज पर बोझ डालता है।
अगर त्योहारों को रस्मी बनाया जाए, यानी सामाजिक समरसता और भाईचारे पर जोर दिया जाए, तो क्या वे अधिक सार्थक नहीं होंगे? यह उपभोक्तावादी संस्कृति से हटकर आपसी रिश्तों और सामुदायिक एकता को बढ़ावा दे सकता है। क्या आप भी मानते हैं कि त्योहारों को उनके मूल संदेश तक सीमित करना चाहिए?
गरीबों के लिए कुर्बानी: बोझ या वरदान?
जुनैद ने एक संवेदनशील सवाल उठाया है: "गरीब लोग क्यों अपनी जमा पूंजी बकरों पर खर्च करते हैं ? क्या कुर्बानी उनके लिए वरदान है ?" कुर्बानी का एक हिस्सा गरीबों तक पहुंचता है, जो दान और समुदाय की भावना को दर्शाता है। लेकिन गरीब परिवारों के लिए, कुर्बानी के लिए बड़ी राशि खर्च करना आर्थिक बोझ बन सकता है। 
क्या इस राशि का एक हिस्सा गरीबों की शिक्षा, स्वास्थ्य या अन्य स्थायी मदद के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है ? कुछ विद्वान कुर्बानी को अनिवार्य मानते हैं, जबकि अन्य इसे वैकल्पिक मानते हैं, जैसे कि दान या केक काटने जैसे विकल्पों को अपनाने की सलाह देते हैं। क्या यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि कुर्बानी वास्तव में गरीबों के लिए वरदान बने, न कि बोझ?
ऑनलाइन मटन खरीदारी: बदलती आदतों का संकेत जुनैद ने एक आधुनिक प्रवृत्ति की ओर ध्यान खींचा है: ऑनलाइन मटन खरीदारी। मेट्रो शहरों जैसे दिल्ली, मुंबई और बेंगलुरु में Licious जैसी कंपनियों ने 40-50% की वृद्धि दर्ज की है। यह शहरीकरण और तकनीकी प्रगति का परिणाम है लेकिन जुनैद का सवाल बहुत ही गहरा है: "क्या कुछ लोग बकरीद पर जानवरों की कुर्बानी को गलत बताते हैं, लेकिन खुद ऑनलाइन मटन मंगाकर खाते हैं ? क्या उनकी पहचान उजागर होनी चाहिए ?"
यह दोहरे मापदंड का सवाल है। एक ओर लोग कुर्बानी की आलोचना करते हैं, लेकिन दूसरी ओर मांस की खपत को बढ़ावा देते हैं। ऑनलाइन प्लेटफॉर्म जैसे Licious और FreshtoHome ने मांस खरीदारी को सुविधाजनक बनाया है, लेकिन क्या यह प्रथा पशु कल्याण पर सवाल नहीं उठाती ? क्या हमें ऐसी आदतों पर खुली बहस की जरूरत है?
पशुपालन का भविष्य: क्या सिर्फ दुग्ध के लिए होंगे पशु ?
जुनैद का अंतिम सवाल है: "अगर जानवर अब नहीं कटेंगे, तो पशुपालन पर जोर क्यों ? क्या पशुओं का पालन सिर्फ दुग्ध के लिए होगा ?" यह सवाल पशुपालन के भविष्य और हमारे नैतिक दृष्टिकोण को चुनौती देता है। अगर मांसाहार की प्रथा कम होती है या वैकल्पिक प्रतीकात्मक कुर्बानी बढ़ती है, तो पशुपालन का उद्देश्य क्या होगा? क्या यह केवल डेयरी, ऊन या अन्य कृषि-सहायक उत्पादों तक सीमित हो जाएगा?
यह सवाल हमें पशुओं के प्रति हमारे रवैये पर भी सोचने के लिए मजबूर करता है। क्या हम उन्हें केवल आर्थिक इकाइयों के रूप में देखते हैं, या एक अधिक संवेदनशील और स्थायी सह-अस्तित्व की ओर बढ़ सकते हैं ? यह पशु कल्याण और पर्यावरणीय स्थिरता के लिए एक क्रांतिकारी बदलाव हो सकता है।
बलिया के जुनैद अहमद द्वारा उठाए गए ये सवाल परंपरा और आधुनिकता के बीच एक नए संतुलन की तलाश को दर्शाते हैं। कुर्बानी का धार्मिक महत्व अपनी जगह है, लेकिन पशु कल्याण, आर्थिक बोझ और बदलती सामाजिक जरूरतों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। क्या हम इन सवालों के जवाब खोज सकते हैं जो धार्मिक भावनाओं का सम्मान करते हुए आधुनिक मूल्यों को अपनाएं ?

भारत मीडिया के संपादक शब्बीर अहमद से बातचीत पर आधारित......।
विज्ञापन